ग्रीष्म ऋतु प्रस्थान कर गयी है और शरद ऋतु का आगमन दल-बल के साथ हो गया है। प्रतिदिन नए-नए दृश्य देखने को मिल रहे हैं, उदाहरण के लिए- सूर्य और बादल के बीच प्रतिस्पर्धा, ओस कणों या कुहासों की प्रतिस्पर्द्धा इत्यादि इत्यादि। इन ऋतु परिवर्तनों का जीवों पर बड़ा असर पड़ा है। जिनके शरीर खुद को ऋतु के अनुसार ढालने में सफल हो जाते हैं, वे जीव तो ऐसे घूम रहे हैं, जैसे कि नया कुछ नहीं हुआ है, परंतु जिनके शरीर ऋतु के अनुसार खुद को नहीं ढाल पाते हैं, उनपर ऋतु अपने आने का प्रभाव छोड़ देती है। ऐसी स्थिति में कुछ ऐसी युक्ति तो होनी चाहिए थी, जिससे कि इन परिवर्तनों का तन पर कम से कम प्रभाव पड़े। तो शायद इसी क्रम में छठ पर्व का जन्म हुआ होगा। कई कथाएँ इसके पीछे प्रचलित हैं, जैसे द्रोपदी के द्वारा किया गया छठ, माता सीता के द्वारा किया गया छठ इत्यादि।
छठ मूलतः सूर्य उपासना का विज्ञान है। सूर्य से हमें निरंतर ऊर्जा मिल रही है। योगियों के अनुसार सूर्य से ही जीव-चराचर को प्राण प्राप्त होता है, जिससे वे जीवन को बचाए रखने में समर्थ होते हैं और वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य से जीवनी-शक्ति रूपी ऊर्जा प्राप्त होती है। जो भी हो, इस बात पर सभी एकमत हैं कि यदि सूर्य न रहे तो धरती पर जीवन कदापि संभव नहीं हैं। पूरी धरती एक “हिमगोला” में परिवर्तित हो जाएगी और धरती पर पुनः हिमयुग का पदार्पण हो जाएगा।
यदि भारत की बात की जाए तो युगों-युगों से सूर्य को काफी महत्व दिया गया है। सूर्य को ही केंद्र में रखकर सूर्य चिकित्सा विज्ञान तथा सूर्य विज्ञान की खोज की गयी थी। जिसमें से सूर्य चिकित्सा विज्ञान अभी भी जीवित है, इस विज्ञान के सहारे निस्संदेह कई प्रकार के जटिल रोगों को भी ठीक किया जा सकता है और वो भी महँगी चिकित्सा पद्धति का सहारा लिए बिना। वैज्ञानिकों के अनुसार भी ये कमाल की चिकित्सा पद्धति है। सूर्य विज्ञान तो भारत से लगभग लुप्त ही हो गया है। आज से कुछ वर्ष पहले काशी के एक सिद्ध योगी “स्वामी विशुद्धानंद” जी ने इस विज्ञान पर पर्याप्त प्रकाश डाला तथा इस विज्ञान के सहारे कई असंभव से लगने वाले कार्य भी कर डाले। उदाहरण के लिए, लोहे को सोना में परिवर्तित करना, फूलों का रंग बदल देना आदि-आदि। उनके अनुसार, आज भी सूर्य विज्ञान की चमत्कारिक विधि को जीवित रखा गया है, हिमालय के दिव्य योगियों के द्वारा और इस विज्ञान को उन्होने अपने हिमालयवासी गुरुदेव से ही प्राप्त किया था। भारत से इस विज्ञान के लुप्त होने के पीछे काफी कारण हैं, इस विज्ञान को शुरू से ही कुपात्र से बचाकर रखा गया ताकि वे इसका दुरुपयोग न कर सकें, इसलिए किताबों में शायद सिर्फ सिद्धान्त संबंधी बातों का ही जिक्र किया गया।
इस प्रकार छठ सूर्य-उपासना की ही एक प्रणाली है। यह एक पद्धति है सूर्य से कुछ ऐसा प्राप्त करने की जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। यदि सूर्य की विधिवत उपासना की जाए तो बल, बुद्धि, कांति-तेज, अमिट पराक्रम आदि सहज में ही प्राप्त होते हैं। हमारे पूर्वजों ने सूर्य की विधिवत उपासना की, जिससे उन्हें काफी कुछ प्राप्त हुआ। उन्होने उसका सदुपयोग किया और भारत को ज्ञान के शिखर तक पहुँचा दिया था।
छठ पर्व, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनायी जाती है, जब शीत ऋतु का आगमन हो चुका होता है। इस पर्व को देख के ऐसा लगता है, जैसे कि प्रकृति ने ही ढाल प्रदान कर दी हो इस ऋतु के आक्रमण से बचने के लिए। इस पर्व को सर्वप्रथम किस स्थान पर मनाया गया होगा, यह तो शोध और शोध का ही विषय है, परंतु आज यह पर्व बिहार, झारखंड, पूर्वांचल तथा देश के कई राज्यों में धूमधाम से मनायी जाती है, साथ ही विश्व के कई स्थानों से भी इसके मनाये जाने की खबरें आती हैं।
आज के समय में देखें तो छठ पर्व, बिहार की पहचान ही बन चुकी है, सभी उत्सुक रहते हैं कि कैसे इस पर्व को देखने का मौका मिले। यदि विश्लेषण के तौर पर देखें तो यह पर्व कई कर्मकाण्डों तथा क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। व्रत-उपवास, सूर्य उपासना, तपश्चर्या आदि के सम्मिश्रण से यह पर्व बना है।
उपवास की बात करें तो इस पर्व में उपवास का भीष्म रूप देखने को मिलता है। 36 घंटे का लंबा उपवास, ये सबके बस की बात तो नहीं। हम सब जानते हैं कि यदि शरीर किसी बीमारी की चपेट में आ गया हो या आने वाला हो, तो रोकथाम के लिए उपवास से बढ़कर कोई अस्त्र नहीं है इसे रोकने के लिए। शायद यही कारण रहा होगा कि पूर्व समय में सर्दी-बुखार आदि होने पर रोगी को उपवास की सलाह दी जाती थी। जो व्रतिन इस उपवास को रखती हैं, उन्हें निर्जला उपवास करना होता है। इस क्रम में खरना का भी स्थान महत्वपूर्ण है। खरना का एक नियम बड़ा ही सुंदर तथा अजीब भी लगता है, वो नियम ये है कि अगर खरना का प्रसाद ग्रहण करते समय परवैतिन का नाम लेकर कोई पुकारे तो उसका भोजन भंग हो जाता है अर्थात उसे भोजन करना छोड़ उसी समय उठ जाना पड़ता है, भले ही क्षुधा शांत हुई हो या नहीं। अगले दिन सायंकालीन अर्घ्य का दिवस होता है। सुबह से ही पुरुष वर्ग नदी, तालाबों, बाबरियों आदि के किनारे पर स्थान बनाने की तैयारी में लग जाते हैं। घाट को काफी आकर्षक बना दिया जाता है। जहाँ कल तक निर्जनता का वास था, गंदगी का वास था, वहीं आज स्वच्छता का साम्राज्य देखने को मिलता है तथा सजावट तो ऐसी होती है कि देखते ही रहें।
घाट पर पहुँचने के पश्चात शुरू होता है असली पर्व। बच्चे सब तो पटाखे फोड़ने में व्यस्त रहते हैं, इस क्रम में कोई यदि उन्हें छेड़ दे तो उसे काफी भारी पड़ जाता है। बच्चे सब चुपके से उसके पीछे जाकर पटाखे फोड़ देते हैं, फिर तो तब का दृश्य देखने लायक रहता है। कुछ क्षण बाद सड़कों पर आस्था की एक कठिन परीक्षा देखने को मिलती है। जिन्होंने कोई मन्नत मांगी होती है, वे गाँव या स्थान के एक धार्मिक स्थल से शुरू करके दण्डवत की मुद्रा को अपनाते हुए घाट तक जाते हैं। जिन्होंने इस क्रिया को देखा है तथा किया है, वो इसे अच्छे से जानते हैं। वाकई काफी कठिन व्रत है छठ। तप, उपवास के साथ-साथ इसमें आस्था का ऐसा मिश्रण है, जो इस व्रत को करने वालों को वो शक्ति प्रदान करता है, जिससे वो इस व्रत को पूरा कर सकें। कल तक जिन व्यक्तियों की पहचान आलसी तथा कामचोर के रूप में होती थी, वे भी कभी-कभी नजर आ जाते हैं, इस कठिन और जटिल “दंड-प्रणाम” को पूरा करते हुए दिख जाते हैं। घाट पर तो पूरे आस्था का माहौल ही व्याप्त दिखाई देता है। सर्वत्र ही छठ से जुड़े गाने सुनाई पड़ते है। “कांचे बांस के बहंगिया”, “उगहु न सुरूज़ देव”, “पटना के घाट पर” इत्यादि छठ गीत सबका मन मोह लेती हैं।
जब सूर्य अस्ताचल में जाने को तत्पर रहते हैं, तब सब व्रती तथा व्रतिन जल में उतर जाते हैं अर्घ्य देने के लिए और घंटों जल में खड़े रहते हैं। सूर्य-उपासना का ये बहुत ही अच्छा उदाहरण है। इतिहास गवाह है कि जिसने भी पूरे विधि-विधान से सूर्य उपासना की है उसे एक अमिट तेज, बल, बुद्धि तथा समृद्धि की प्राप्ति हुई है। महाबली कर्ण इसके सर्वश्रेष्ठ हैं। उनका कवच और कुंडल जो आज के समय में शोध का विषय है, वो भी सूर्य से ही प्राप्त हुआ था। जब तक ये उनके शरीर में था तब तक किसी की भी सामर्थ्य नहीं थी कि उन्हें परास्त कर सके।
इस प्रकार सूर्य के अस्ताचल में जाने के बाद सभी अपने-अपने घर चले आते हैं। पुनः सुबह ब्रह्मबेला से ही घाट पर पहुँच जाते हैं। घाट का नजारा तो देखने लायक रहता है। अंधेरे में दिये की रोशनी, मानों जीवन का सूत्र ही दे देती है। मानो वे कहती है कि अपने सामर्थ्य अनुसार ही जलो, लेकिन जलो। ये दिये की तरह जलने की प्रकृति ही वो अस्त्र है, जिसकी सहायता लेकर हम दुनिया को रहने लायक बना सकते हैं। जब सूर्य के दिखाई देने का समय होता है तो सभी फिर जल में उन्हें अर्घ्य देने को उपस्थित हो जाते हैं। हाथों में फूल-अगरबत्ती लिए सबकी नज़र सिर्फ सूर्य के दिखाई देने पर ही टिकी रहती है। उस समय जैसे उनके शरीर का कष्ट लुप्त ही हो जाता है। यही तो होती है सकारात्मक आस्था की ताकत। एकता की बहुत बड़ी ताकत इस पर्व में देखने को मिलती है। क्या अमीर, क्या गरीब, क्या उंच और क्या नीच सभी एक स्थान में बिना भेदभाव के सूर्यदेव की उपासना को तत्पर देखाई देते हैं। लगता है, जैसे की भारत का वास्तविक स्वरूप ऐसा ही है। न अमीर, न गरीब, न उंच, न नीच, सब मानव ही हैं मानव। जिनकी मन्नत रहती है वे दूध आदि लेकर सभी के “सूप” आदि पर दूध अर्पण करते हैं। बहुत ही विहंगम दृश्य होता है वो। सूर्योदय के पश्चात सभी अपना-अपना अर्घ्य देकर इस क्रिया को पूरी करते हैं। सबको प्रसाद मिलती है।
फिर धीरे-धीरे घाट खाली होने लगता है। सब अपने-अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करने लगते है। कुछ क्षण पहले ही जहाँ अच्छी खासी भीड़ थी, वही पुनः निर्जन होने लगता है। इस तरह छठ पर्व समाप्त होता है, पूरे 36 घंटों के उपवास के पश्चात। बड़ा ही सुंदर दृश्य होता है ये सब। लगता है जैसे की स्वर्ग ही धरती पर उतर आया हो। उस समय के दृश्य को शब्दों में पूरी तरह से बयां नहीं किया जा सकता है। क्योंकि शब्द तो शब्द ही होते हैं और वर्णन के समय तो कुछ छुट जाना तो लाजिमी ही है। वास्तव में यदि देखा जाए तो छठ जीने का पर्व है। छठ जहाँ एक तरफ सूर्य की आराधना का पर्व है, वहीं एक तरफ स्त्री शक्ति की भी आराधना का भी पर्व है। ये हमें सीख देता है कि एकता से सब संभव है, नर और नारी दोनों का समान महत्व है, मानव यदि चाहे तो निर्जन को भी रमणीय स्थान बना सकता है और इसकी सबसे बड़ी सीख तो यही है कि ये जीवन की सच्चाई को पुनः एक बार दिखा देता है। लोग आते हैं, पुजा करते हैं फिर चले जाते हैं। यद्यपि वो स्थान उनका नहीं रहता है, फिर भी वे वहाँ बैठकर पुजा करते हैं, फिर उनके जाने के बाद वो स्थान पुनः निर्जन ही हो जाता है। दो दिन की मौज फिर तो उसे वीरान होना ही है। क्या इसी तरह की घटना दैनिक जीवन में नहीं होती हैं? व्यक्ति जमीन, संपत्ति कुछ भी नहीं ले जा सकता। ये सब मनुष्य की हैं भी नहीं, फिर भी मनुष्य अपने अमूल्य जीवन को बर्बाद कर देता है इन्हीं सब के पीछे। एक दूसरे का खून बहाता है, चोर-लुटेरा बन जाता है। पता नहीं मानव सभ्यता किधर जा रही है? निश्चय ही इसपर मंथन की आवश्यकता है। छठ हमें एकता, मानवता, शांति, भाईचारे आदि की सीख देता है। ये एक संभावना प्रदान करता है कि हमें हमारी कमियाँ दिखे और हम सब अपनी कमियों को दूर करने की दिशा में प्रयासरत हों।
यदि हम छठ को समझने में चूक जाएंगे तो हम एक ऐसा अवसर गँवा देंगे, जिसका उपयोग कर हम क्या से क्या हो सकते थे।
साभार – कृष्णा कुमार कर्ण, फोटो- सचिन कुमार
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